आखिर क्यो स्त्री को समझना मुश्किल है...?...

लंबे उलझें केशों मे एक असरल मन छुपा हैं।
बिखरी हुए संगठित अवधारणा से भरा हैं।
मनन उसकी जैसे विशाल धरा है।
फिर भी ना जानें गागर मे ही सागर दबा है।।

नयन उसके गहरे ख्वाब बडे सजाएँ है।
छलकते अश्रुओं में निर्भया बुदबुदाएँ है।
रहस्यमय झुकीं पलकों मे विप्लव छुपाएँ है।
फिर भी ना जाने दृष्टि चार दपर्ण के मध्य मे दबाएँ है।। 

मौन लबों से ब्रह्माण्ड को निहारती है।
मात्र मुस्कुरानें से प्राण निकालती हैं।
कृपाण सी जुबां बेखौफ तराशती है।
फिर भी ना जाने खामोशी से झाँकती है।।

समुद्रँ कि लहरें कुएँ के गहराई मे समायी हैं।
विधाता के इस अनन्य खंड को बूझनें मे बडी कठनाई हैं।।

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