कबुतर

मेरी मकां कि क्षितिज पे बैठा है एक कबुतर...

कहना है उसे कुछ,कुछ छुपा है उसके भीतर...


बेजुबां बेलफ्ज ना था आज,आज था बेखौफ वो...

पुछा उसने मुझसे मेरे बारे मे,मैने कह दिए मर चुका है वो...


यदि मृत है वो तो देह दिखाओ,झुठ ना तुम इतना फैलाओं... 

हया से मरा था जो शख्स,शख्सियत उसकी खुलके बतलाओ... 


नादान इतना था कि मासूम दिल लिए घर से बाहर गया था वो...

रूह उसकी अपहरण हो गयी,बाकी अब कुछ बचा ना वो...


रूह उसकी किसने चुराई, FIR है कहाँ लिखाई... 

अपहरणकर्ता का कुछ सुराग मिला,क्यो ना हुई अब तक इसपर कोई कार्यवाही... 


बे-रूह उसकी काया भटक-मटक के मूषको पर गिर गई...

मूषको ने कुतरा ऐसा कलम एक स्याही-स्याही बिखर गई...


स्याही-स्याही बिखरा है जो,रूह उसकी मिली कहाँ है... 

बे-रूह सा वो बेगैरत इंसान,वो इंसान कहाँ है... 


इंसान वो स्याही से भरा हुआ पृथक कुआँ बन गया था

पर कमबख्त,लापता रेगिस्तान मे वो पडा हुआ था..

मरना तो उसको था,सूर्य कि तपस मे जल कब टिक पाया है... 

रेगिस्तान मे कुआं ढूढनें कब कहा कोई आया है... 


बे-रूह कमबख्त वो काया भी मर गई,तेरी कहानी सुनके मेरी रूह डर गई... 

कुछ तो बचा होगा उसके भीतर,झुठ ही कह दे उसकी रूह मिल गयी... 


ऐ मेरे नादान कबुतर,काम क्या था तुझे उससे ये तो बता... 

सुनके सिर्फ मेरी तू है किधर भगा... 














 






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