आखिर क्यो पुरूष को समझना मुश्किल है...?...
लब्ज मुँह से आतें उससें पहला ना रोना उसे सिखा दिया है।
इंसान बननें से पहले उसे पुरूष बना दिया है।।
निक्खट्टू या निकम्मे में बस परिभाषित उसका जीवन है।
गुफ्तुगू करें तों निर्लज्ज तूष्षांक रहें तों बावला है।
तन्मय यदिं प्रेम करें तों अन्यथा वों शक्तिहीन है।।
शैतान मस्तिष्क मे विवेक छुपा है,दुरदर्शिता कूट कूट के भरा है।
पूर्वदर्शिता अंलकार से अंलकृत मौन रहके वो हालातो से लडा है।
"तुमने करा ही क्या हैं" सुनके भी चुपचाप खडा हैं।।
गुप्त त्यागी बन वैरागी सा वों बन चुका है।
स्त्रीवादी समाज मे आँखों मे अश्रु लेकर वो हँस चुका है।
भूलो मत पुरूष प्रधानता का पाठ उसने अपनी माँ से ही पढा है।।
ज्वालामुखी गंगा कि शीतलता मे डूबा हुआ है।
विधाता का ये अनुपम खंड असुलझा हुआ है।।
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