Unconnected Thought's

गर बाहर रोशनी हो तो जरूरी नही आसमां मे रवि ही हो...
हो सकता है ये रोशनी चांद कि हो या भी हो सकता है ये बस एक शाम हो।उम्मीद शाम ढलने कि रखना कैसे सही हो सकता है,शाम के बाद अंधेरा घना ही होगा। उस गुप्त अंधेरे मे 

ना ही उम्मीद है और ना ही कोई उमंग है।उम्मीदों पर दुनिया कायम है पर जब उम्मीद ही ना हो हादसा कुछ गहरा जरूर हुआ होगा। कुछ घाव इतने गहरे होते जो समय भी भर नही सकता या ये सरासर झुठ है कि समय हर घाव भर देता है।समय आखिर है क्या।बस एक गणना जो इतनी भी सटीक नही।कुछ घाव इतने गहरे होते है कि पीडित शस्त्र उठा लेता है।शस्त्र कुछ ऐसे 

कलम भी कितनी मासूम होती है।स्याही से पन्ने को वजनी बना देती है और वो पन्ना स्वंय को पराक्रमी समझ लेता है।वास्तव मे तो खेल शब्दों का है।नही, नही शब्दों को पिरोने वाले उस रेशम के धागे का है जिसने कुछ खूबसूरत सी आकृति पिरो दी पन्ने पर।कीडे ने कितना कुछ सहा होगा उस रेशम को बनाने के लिए यह मायने नही रखता है, बिल्कुल भी नही।कीडे कि औकात 

ये लेखकों कि जिंदगी भी कितनी अलग होती है।कहानी तो हर शख्स है यहा फिर क्या मायने रखता है कुछ कहानियों का सर्वाजनिक होना।कुछ सवाल बडे बेतुके से आते है कि आखिर लिख कैस लेते हो इतना गहरा।गहराई, काश कोई जमीं से भी पुछता जल इतनी गहराई मे क्यो छुपाया है।जमीं से निकलने वाला जल

किसी लेखक को सुनना जा सकता है पढा सकता है तोला भी सकता है और खरीदा तो बिल्कुल जा सकता है।किंतु यह जो कागजों मे बिक जाते है ये लेखक नही होते है।अपने मन कि बात कह देना लेखन नही होता है।लेखक होना आसान नही है।आसान है तो 

आखों से जो सुना और कानो से जो देखा उसे जुबां से लिख देने वाला लेखक होता है।स्याही को पन्ने पर बिखेरना और उस पन्ने को लेकर जग-जग डोलना,काश ये व्यावसायिकता भी लेखन का हिस्सा होती तो शायद सरल होता कुछ लेखक होना पर कीडे का कार्य सीमित होता है।कितना हास्यास्पद है ये कि कुछ 

कभी गर कुछ चुनना पडे दो सही मे से जिसमे ना चुने जाने गलत हो जाएगा तब निर्णय अत्यधिक कठिन हो जाता है।दोनो को ही ना चुनना सही भी है और गलत भी।अब निर्णय लेना यह कठिन कि सही करना या गलत।सही करना गलत है और गलत करना सही ऐसी विषम परिस्थितियाँ 

आधे लोग अक्सर सबको पुरा कर ही देते है किंतु वह स्वंय अधुरे ही रह जाते है।ऐसा करते नही वो खुदखुशी के लिए बल्कि खटकता है उनको अधुरापन।वो बन जाते उस आलू कि तरह जिसे अकेले कोई नही खाना चाहता या फिर नमक कि तरह जिसका मात्रा सटिकता के उच्चतम पर हो अन्यथा वह व्यर्थ है।आधा अधुरापन 

सुनसान महफिलों कि किलकारियों मे गुंजती मौन ध्वनि काव्य का पोषक तत्व होती है किंतु कभी कभी ध्वनि कि अधिक ऊष्मा कलम को टूटने करने के लिए प्रेरित करती है अपितु कलम अपने अद्भुत साहस से अधिक ऊष्मा से अधिक काव्य का सृजन करती है क्योंकि वह अपने बिखरने से स्याही फैल जाती है इस बात का ज्ञान रखती है।टूटकर पृष्ठ पर स्याही फैला देना कभी भी कलाकारी नही होती है।कला सरल है किंतु कलाकार होना कभी नही

कलाकार की मिट्टी थोडा अधिक वजनी होती है कि थक जाता है मन उसे उठाते उठाते क्योंकि भूल जाता है वो हँसना सबको हँसाते हँसाते इसलिए बिखरना उसे उस स्वंतत्रता कि भांति प्रतीत होता जिसे वो प्राप्त तो करना चाहता है किंतु उसे चाहता नही है।चाहने को तो वो बहुत कुछ चाह सकता है पर बहुत कुछ खोने के उपरांत भी बहुत कुछ अप्राप्त होता है उसे 

वो किसी सडक किनारे रखी बेंच जिसपर थका हुआ यात्री प्राप्त करता है कुछ और कुछ छोड जाता है उसी बेंच पर।वो बेंच सबको प्राप्त है और पर्याप्त भी किंतु उसे ही बहुत कुछ अप्राप्त है और वो ही अपर्याप्त है।प्राप्त पर्याप्त हो ऐसा कही लिखा हुआ नही है और अप्राप्त अपर्याप्त है 


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