ज्योति
यश एक पुराने से अस्पताल में अपनी आखरी सांसें गिन रहा था। सरकारी मानकों को ताक पर रखकर और अमानवीय घंटों की यश एक छोटी सी नौकरी करता था। वो नौकरी में उसकी तनख्वाह बस इतनी थी कि दो वक्त की रोटी खा सके। अपनी जरूरतों को इतना सीमित रखा हुआ था कि सर पर कोईं कर्ज नहीं था। लेकिन आज अपने इलाज के लिए उसे पैसों की जरूरत थी, किंतु वो उसके पास थे ही नहीं। कल शाम कचहरी की सीढ़ियों से उतरते समय मात्र पच्चीस वर्ष की आयु मे यश को दिल का दौरा पड़ गया। वैसे गलती उसी की थी!
आखिर क्या जरूरत थी सड़क पर किसी अनजान लड़की की सहायता करने की। अरे ज्यादा से ज्यादा चार लड़के सुनसान सड़क पर उस दिन उसकी इज्जत ही तो लूटते, इससे ज्यादा तो कुछ नहीं करते। अरे लुटने देता, इज्जत भी कोईं ऐसी चीज है जिसे संभाल कर रखा जाए। इज्जत को तिजोरी में ताला मारकर रखना भला कहां की समझदारी है। बेकार में ही उसकी इज्जत की रक्षा के लिए मेहनत की, और उस अनामिका ने क्या किया।
पैसा खुदा नहीं किंतु खुदा से कम भी नहीं। पैसे से सबकुछ ख़रीदा जा सकता है। यश भी तो पैसों के लिए रोज सुबह उस नौकरी को करने जाता था जो वो करना ही नहीं चाहता था। अब नौकरी करने वाले का भी भला कोई आत्मसम्मान होता है। ज्योति के पिता ने भी तो 'धन' देकर ज्योति के लिए यश को ख़रीदा था। जब यश खुद पैसों में बिका था तब उसे कुछ ग़लत नहीं लगा, अब जब अनामिका ने उन चार लड़कों से पंद्रह लाख रूपये लेकर कचहरी में अपना बयान बदल दिया था तो इसमें ग़लत ही क्या है। यश के ठीक होते ही उसे गिरफ्तार ही तो किया जाएगा। ज्यादा से ज्यादा तीन-चार साल की जेल होगी। अब धन की कमी से यश को जेल में तकलीफ़ होगी तो इसमें अनामिका की क्या ग़लती।
अगर आज यश की दुर्दशा के लिए कोई जिम्मेदार है तो वो स्वंय यश ही है। वो गरीब है इसमें उसी की ग़लती है। गरीब होकर नायक बनने की चेष्ठा उसकी उससे भी बडीं ग़लती है। ग़रीबी एक अभिशाष है। इंसान को कभी भी गरीब नहीं होना चाहिए।
इस सब फ़जीहत में ज्योति को बिना बात के सजा मिल रही है। पिता ने एक 'बैल' के साथ बांध दिया, भाईयों ने अपनी घर की पुरानी 'गाय' को देखकर दरवाजा बंद कर लिया। अब बेचारी गाय अपने पेट की आग बुझाने के लिए कूडें में मुॅंह ना मारे तो भला क्या करें।
सुबह की भोर के साथ दीपक की ज्योति बुझ गयी!
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